रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
0 |
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
चौ.-रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।
प्राणों की आधाररूप अवधि का एक दिन शेष रह गया! यह सोचते ही भरत
जी के
मनमें अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये ? प्रभु ने कुटिल
जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया ?।।1।।
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।
अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं;
जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं
हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ
नहीं लिया!।।2।।
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।3।।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।3।।
[बात भी ठीक ही है, क्योंकि] यदि प्रभु मेरी
करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़
(असंख्य) कल्पोंतक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता। [परन्तु आशा
इतनी ही है कि] प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और
अत्यन्त ही कोमल स्वभाव के हैं।।3।।
|
लोगों की राय
No reviews for this book